लोगों की राय

बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

व्याख्या भाग

प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)

नागमती : वियोग-खण्ड

(1)

नागमती चितउर पथ हेरा। पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा॥
नागर काहु नारि बस परा। तेइ मोर पिउ मोसौं हरा॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ। पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ॥
भएउ नरायन बाडँन करा। राज करत राजा बलि छरा॥
करन पास लीन्हेउ कै छंदू। विप्र रूप धरि झिलमिल इंदू।
मानत भोग गोपीचंद भोगी। लेइ अपसवा जलंधर जोगी॥
लेइगा कृस्नहि गरुड़ अलोपी कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी॥
सारस जोरी कौन हरी, मारि बियाधा लीन्ह? ॥
झुरि झुरि पींजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह॥1॥

शब्दार्थ - फेरा = वापसी। नागरि = चतुर नायिका। करा = कला। करन = राजा कर्ण। झुरि = सूखकर।

प्रसंग - राजा रतन सेन शुक के मुख से पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन सुनकर मूर्च्छित हो जाता है। होश में आने के पश्चात् वह सोलह हजार कुँवरों के साथयोगी का रूप धारण करके सिंहलदीप जाता है। वहाँ पर वह शुक द्वारा बताई गई युक्ति द्वारा 'पद्मावती' को प्राप्त करता है। इधर पति रतनसेन के चले जाने पर नागमती उनके वियोग में बहुत दुःखी हैं। प्रस्तुत प्रसंग में उसकी उस विरह दशा का वर्णन है। इन पंक्तियों में नागमती के हृदय में हीरामन नामक शुक के प्रति वर्तमान क्षोभ की भावना को कवि ने स्पष्ट किया है -

व्याख्या - राजा के बहुत दिनों तक न आने से रानी नागमती को बहुत चिन्ता हुई। वह उसके मार्ग में बैठकर प्रतीक्षा करने लगी। वह अपने आप ही सोचने लगी कि मेरा पति जब से गया है तब से अभी तक वापिस नहीं आया। लगता है कि वहाँ किसी होशियार नारी ने उसको अपने वश में कर लिया है। इसी कारण उसको मेरा ध्यान नहीं रहा, वह तोता मेरे पास क्या आया कि वह मुझसे मेरे पति को ही छीन कर ले गया। यदि वह मेरे पति के बदले मेरे प्राण ले जाता तो अच्छा होता। उसने मेरे साथ धोखा किया। वह उस वामन के समान निकला जिसने बलि को छल लिया था। कर्ण की मृत्यु के लिए भी इन्द्र ने धोखे से राजा कर्ण से उनके बाणों को ले लिया था। राजा भर्तृहरि भी आनन्द से छला गया। राजा गोपीचन्द्र को भी जालन्धर योगी ने सुख से नहीं रहने दिया। अक्रूर के कृष्ण को भी ले जाने पर गोपियों को विरह वेदना का भार सहना पड़ा था। जब इतने बड़े-बड़े लोगों कोई विरह सहना पड़ा तो भला मैं विरह के कारण कैसे जीवित रह सकती हूँ। न मालूम किसने छुरी मारकर सारस के जोड़े को विमुक्त कर दिया। वह नागमती वियोग की पीड़ा में घुल घुलकर कृश काय हो गयी थी। उसका शरीर अब हड्डियों का पिंजड़ा बन गया था और उसके अन्दर विरह की अग्नि लगी हुई थी।

विशेष - कवि ने नागमती के विरह का अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से चित्रण किया है।

 

(2)

चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा साजा बिरह दुंद दल बाजा
धूम, साम, धौरे घन धाए। सेत धजा बग पाँति देखाए।
खड़ग बीजु चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरिसहिं घन घोरा॥
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी कंत! उबारू मदन हौं घेरी॥
दादुर मोर कोकिला, पीऊ, गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ॥
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाह, मँदिर को छावा॥
अद्रा लाग लागि भुइँ लेई। मोहिं बिनु पिउ को आदर देई?
जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्व॥4॥

शब्दार्थ - गाजा = गरजा। दुंद = दुःख ! धौरे = श्वेत। बीज = बिजली। फेरी = ओर। पुख - पुख नक्षत्र। गारो = गौरव।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसीकृत 'पद्मावत' के 'नागमती वियोग-खण्ड' से उद्धृत हैं। नागमती के वियोग वर्णन के अन्तर्गत जो बारहमासा है उसका यहीं से प्रारम्भ होता है। यह बारहमासा हिन्दी महीने के आषाढ़ से प्रारम्भ होता है। इन पंक्तियों में कवि आषाढ़ में होने वाले ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ नागमती की विरहावस्था भी वर्णन करता है

व्याख्या - कवि ने नागमती के विरह-वर्णन को मार्मिक बनाने के लिए बारहमासे का भी वर्णन किया है। प्रत्येक ऋतु का प्रभाव विरहणी पर मार्मिक पड़ता है। इस बारहमासे का प्रारम्भ आषाढ़ मास से किया गया है।

आषाढ़ मास में बादलों ने गरजना आरम्भ कर दिया। इसी मास में विरह का दुःख भी अधिक बढ़ गया। धुंधले और श्वेत रंग के बादलों से आकाश पर गया। चारों ओर लगी हुई बगुलों की पंक्ति इस प्रकार लग रही थी मानो श्वेत पताका लगी हो आकाश में चमकती हुई बिजली तो लगता था मानो तलवारें चमक रही हों। वर्षा होने पर प्रतीत होता था कि चारों ओर से बाण चल रहे हों। आर्द्रा नक्षत्र के लगते ही बिजली चमकने लगती और वर्षा होनी आरम्भ हो जाती है। ऐसे वातावरण में नागमती को पति का वियोग बहुत अखरता है। वह सोचती है कि पति के बिना इस मौसम में और भला मुझे कौन आदर देगा? चारों ओर घिरे बादल उसे कामदेव की सेना प्रतीत हो रहे थे। इसलिए वह प्रिय से याचना कर रही थी कि वह आकर मुझे बचा ले। मेढ़क, कोयल एवं पपीहे की आवाज अब उसे हृदय को बेंधने वाली प्रतीत हो रही थी। वह सोच रही थी कि न मालूम अब प्राण जिन्दा भी रह सकेंगे या नहीं रह पायेंगे। इस पुण्य नक्षत्र में पति के बिना मेरी रक्षा भला कौन कर सकता है? आज के दिन वे स्त्रियाँ सौभाग्यशालिनी हैं जिनके पति समीप हैं। मेरा पति तो मुझसे बहुत दूर है। इसलिए मेरे सभी सुख नष्ट हो गये हैं।

विशेष -
1. जायसी ने नक्षत्रों का जो क्रम पदमावत में दिखाया है, इससे यह ज्ञात होता है कि उन्हें इसका पर्याप्त ज्ञान था।
2. अनुप्रास तथा सांगरूपक विरह में सैन्यदल का आरोप है।

(3)

भा भादों दूभर अति भारी। कैसे भरौं रैनि अँधियारी॥
मँदिर सून पिउ अनतै बसा। सेज नागिनी फिरि फिरि डसा॥
रहौं अकेलि गहें एक पाटी नैन पसारि मरौं हिय फाटी।
चमकि बीजु घन गरजि तरासा। बिरह कान होइ जीउ गरासा॥
बरसै मघा झकोरि झकरी। मोर दुइ नैन चुर्वै जस ओरी॥
धनि सूखे भरे भादौं माहा। अबहूँ न आएन्हि सींचेन्हि नाहा॥
पुरवा लाग भूमि जल पूरी। आक जवास भई तस झूरी॥
जल थल भरे अपूर सब, धरति गगन मिलि एक।
धनि जोबन अवगाह महँ, दे बूड़त पिउ ! टेक॥6॥।

शब्दार्थ - रैनि = रात्रि। दूभर = कठिन। मंदिल = घर। तरासा = भयभीत। मधा और पुरवा = नक्षत्रों के नाम हैं। गरासा = खाना।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसीकृत 'पद्मावत' के भादों की अंधेरी रात में भयभीत होकर अपने प्रिय से लौटने का आग्रह कर रही है।

व्याख्या - अब नागमती कहती है कि भादों मास मेरे लिए अत्यन्त कठिन है। अंधेरी रातें काटने पर भी नहीं कट पातीं। मेरा सारा घर प्रिय के अभाव में सूना सा लग रहा है। अपनी शैया अब मुझे नागिन के समान काट खाती प्रतीत होती है। मैं अपनी शैय्या के एक कोने में पड़ी रहती हूँ। सारी रात नींद न आने के कारण आंखें खोले ही पड़ी रहती हूँ। मुझे बिजली चमक और बादल गरज के द्वारा भयभीत करते हैं। बिरह मेरे प्राणों को लेने के लिए तत्पर है। मघा नक्षत्र आ जाने से वर्षा होती है। वह अश्रु धारा निरन्तर अविरल गति से बहती हुई खपरैलों से गिरती हुयी वर्षा की धारा प्रतीत होती है। रुख नक्षत्र लगते ही सारी पृथ्वी जलमग्न हो जाती है। मैं आक और जवास के पेड़ की भाँति कृश हूँ। आकाश और पृथ्वी तो वर्षा के माध्यम से संयोग-सुख का आनन्द लेने में मग्न है लेकिन नागमती का विरह अभी समाप्त नहीं हुआ है। वह अपने आश्रय के लिए अपने पति को पुकार रही है।

विशेष -
1. विप्रलंभ शृंगार में भादों की प्रकृति को उद्दीपन के रूप में उपस्थित किया गया है।
2. 'सेज में नागिन 'विरह में काल', 'जीवन में अवगाह' का आरोप होने के कारण रूपक अलंकार तथा 'मोर नैन पुर्वे जस ओरी' में उपमा अलंकार है।

 

(4)

पूस जाड़ थर थर तन काँपा। सूरुज जाइ लंका दिसि चाँपा॥
बिरह बाढ़ दारुन भा सीऊ। कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ॥
कंत कहाँ लागौं औहि हियरे। पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे॥
सौर सपेती आवै जूड़ी। जानहुँ सेज हिवंचल बूड़ी।
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौ दिन राति बिरह कोकिला॥
रैनि अकेलि साथ नहि सखी। कैसें जियै बिछोही पखी॥
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा। जियत खाइ औ मुए न छाँड़ा॥
रकत दुरा माँसू गरा। हाड़ भएउ सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई, पीउ समेटहि पंख॥10॥

शब्दार्थ - सुरुज = सूरज। दारूहं = अधिक। जूड़ी = ठंडी। सँचान = बाज। चाँड़ा = भयंकर। ररि = रटकर।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसीकृत 'पद्मावत' के 'नागमती वियोग-खंड से उद्धृत है। पोष का शीत नागमती को सताकर उसके विरह को अधिक उद्दीप्त कर रहा है। वह अपनी विरह वेदना का वर्णन करते हुए कहती है -

व्याख्या - पूस के महीने में जाड़ा अधिक बढ़ जाता है। शरीर थर-थर करके काँपने लगता है। सूर्य ठंड के कारण दक्षिण दिशा में रहकर अग्नि में अपने को तपा रहा है। बिरह बढ़ने के कारण शीत भी अधिक करुण बन गया है। इस शीत में मैं कांप-कांप कर मरी जा रही हूँ। मैं पति की पुकार कर रही हूँ। मैं उसके गले से लगने के लिए उत्सुक हूँ। तुम्हारे पास आने के लिए मुझे सारा रास्ता कठिन दिखाई पड़ रहा है। वह मुझे तुम्हारे तक ले जाने वाला नहीं है। शय्या पर बिछा हुआ बिस्तर भी शीत के प्रभाव से ठंडा हो गया है। यह इतना ठंडा है कि बर्फ में लपेटा हुआ प्रतीत होता है। चकवी रात को अपने पति से वियुक्त रहती है किन्तु दिन में वह अपने पति के साथ रहकर संयोग सुख का आनन्द लेती है किन्तु मैं दिन और रात कोयल की भांति अपने ही को पुकारती रहती हूँ। रात्रि में मेरे साथ कोई सखी भी नहीं होती, मैं अकेली ही रहती हूँ। भला मैं अकेली रहकर उस बिछुड़ी हुई चिड़िया के समान कैसे जीवित रह सकती हूँ। विरह रूपी यह बाज मेरे शरीर पर दृष्टि गड़ाये न जाने कब से मेरी ओर देख रहा है। लगता है कि मरने पर भी यह मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा। इस बिरह के कारण मेरे सारे शरीर का रक्त बहता जा रहा है। मांस सारा गल चुका है। सारी हड्डियाँ शंख के समान सफेद दिखाई देने लगी हैं। मैं सारस की जोड़ी की भांति अपने पति को रटती रहती हूँ। हे पति ! अब तो मरण-अवस्था में आकर मेरे पंखों को आकर समेट लो।

विशेष -

1. इसमें विप्रलम्भ श्रृंगार है।
2. थर-थर' और 'काँपि-काँपि में पुनरुक्ति प्रकाश 'सौर सपेती --------- बूढ़ी' में उत्प्रेक्षा 'हौ दिन रात -------- कोकिला' में रूपक अलंकार है। 'धनि' में 'सारस', 'बिरह' में 'सचान' का आरोप होने से रूपक अलंकार है।

 

(5)

जैठ जरै जग, चलै लुवारा उठहिं बवंडर परहिं अंगारा॥
बिरह गाजि हनुवंत होइ जागा। लंकादाह करै तनु लागा॥
चारिहु पवन झकोरै आगी। लंका दाहि पलंका लागी॥
दहि भइ नदी कालिंदी। बिरह क आगि कठिन अति मंदी।
उठै आगि औ आवै आँधी नैन न सूझ, मरौं दुःख बाँधी॥
अधजर भइउँ, माँसु तनु सूखा लागेउ विरह काल होइ भूखा॥
माँसु खाइ अब हाड़न्ह लागे। अबहुँ आउ, आवत सुनि भागे॥
गिरि, समुद्र ससि, मेघ, रिव, सहि न सकहिं वह आगि।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि॥15॥

शब्दार्थ - जरै = तपना। लवारा = लू। धिकै = गर्म। पहाड़ा = पहाड़। मंदी = धीमी। दिनअर = दिनकर।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसीकृत 'पद्मावत' के 'नागमती वियोग खंड' से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों में कवि कहता है कि जिस प्रकार ज्येष्ठ की गर्मी में लू आदि के चलने से सम्पूर्ण संसार जलने लगता है। उसी प्रकार नागमती प्रियतम के विरह में जल रही है और कहती है।

व्याख्या - जेठ का महीना और भी गर्म होता है। इस महीने की की गर्मी में सारा संसार बुरी तरह जल रहा है। चोरों ओर लू चल रही है। बवंडर ही चारों ओर से जलते हुए प्रतीत होते हैं। हनुमान की भांति विरह भी चारों ओर से आकर गर्जना कर रहा है। वह विरह रूपी हनुमान मेरी शरीर रूपी लंका को जला रहा है। चारों ओर से चलने वाली लू उस अग्नि को और भी प्रज्जवलित कर रही है। जब शरीर में वह आग पहुँच गयी है तो मैं ययाँ शैय्या पर शयन करती हूँ तो मेरे पलंग में भी वह आग लग रही है। यह यमुना नदी भी उसी भाग में जल जाने के कारण श्याम ही हो चुकी है। इस प्रकार यह विरह की अग्नि धीरे-धीरे शरीर को झुलसा रही है। आग चारों ओर से उठती है और फिर जोर की आँधी चलने के कारण नेत्र भी अन्धकारमय हो जाते हैं। मार्ग दिखाई न पड़ने के कारण मैं दुःख में बँधी हुई मरती जा रही हूँ। मेरा सारा शरीर अभी अधजला हो गया है, उसका मांस सूख गया है। यह विरह रूपी कौआ उसे चारों ओर से नोच-नोचकर खाये डालता है, इसलिए अब मेरे शरीर में केवल हड्डियाँ ही शेष रह गई हैं। हे प्रियतम ! तुम अब आकर विरह रूपी कौए को भगा दो। इस विरह की अग्नि में नागमती की भाँति पर्वत, समुद्र, बादल, चन्द्रमा भी नहीं जल सकते। उनको यह ताप सहन नहीं है। केवल नागमती ही इस कष्ट को सहन कर रही है। वह पति के लिए इस प्रकार विरह की अग्नि में अब तक जल रही है।

विशेष -
विरह -------- जागा' में उपमा अलंकार तथा 'विरह' में 'काल' का आरोप होने से रूपक अलंकार है।

 

(6)

रोइ गँवाए बारह मासा। सहस सहस दुख एक एक साँसा॥
तिल तिल बरख बरख पर जाई। पहर पहर जुग जुग न सेराई॥
सो नहिं आवै रूप मुरारी। जासौं पाव सोहाग सुनारी॥
साँझ भए झुरि झुरि पथ हेरा। कौनि सो घरी करै पिउ फेरा॥
दहि कोइला भइ कंत सनेहा। तोला माँसु रही नहिं देहा॥
रकत न रहा बिरह तन गरा। रती रती होइ नैनन्ह ढरा॥
पाय लागि जोरै धनि हाथा। जारा नेह, जुड़ावहु नाथा।
बरस दिवस धनि रोइ कै, हारि परी चित झंखि।
मानुस घर घर बूझि कै, बूझे निसरी पंखि॥ 17॥

शब्दार्थ - गँवाएऊ = खो दिया। सहस = सहस्र। सिरई = ठंडा। हेरा = देखना। गरा = गल गया। झांखि = पछता गया। पाँखि = पक्षी।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसीकृत 'पद्मावत' के 'नागमती वियोग-खण्ड' से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों में कवि कहता है कि नागमती अपने प्रियतम के विरह में बारह मास व्यतीत कर दी। इसके पश्चात् वह कहती है -

व्याख्या - इस प्रकार नागमती ने प्रिय के वियोग में रोते हुए बारह महीने बिता दिये। उसकी एक- एक सांस हजारों दुःखों को व्यक्त कर रही थी। उसको एक-एक क्षण वर्ष के समान तथा एक-एक प्रहर युग के समान बच गया था। इसलिए उसके लिए समय काटना भी मुश्किल हो गया था। वह स्वरूपवान पति आता ही नहीं है जिससे कि वह स्त्री सौभाग्य प्राप्त कर पाती। सोना अपने आप में शुद्ध होता है। यदि उसमें चांदी को मिला दिया जाये तो वह अशुद्ध हो जाता है लेकिन जब उसे फिर से शुद्ध किया जाता है तो उसमें सुहागा मिलाना पड़ता है। मैं सारा दिन उसकी प्रतीक्षा में मार्ग देखती रहती हूँ। इसी प्रकार मार्ग देखते-देखते सायंकाल भी हो जाता है। हे प्रियतम ! न मालूम तुम कौन सी घड़ी में यहाँ आओगे। मैं प्रियतम के वियोग में जल जलकर कोयला बन चुकी हूँ। मेरे शरीर का सारा मांस जल गया है। शरीर में अब बिल्कुल खून नहीं रहा है क्योंकि वह खून नेत्रों से बहने के कारण समाप्त हो गया। इसलिए हे पति ! मैं तुमसे याचना करती हूँ कि तुम मिटे हुए प्रेम को फिर से आकर पहले के समान ही बना दो। वह स्त्री सारा साल रो-रोकर दुःखी होती रही। जब वह मनुष्यों से कह कह निराश हो गई तो पक्षियों से अपना सन्देश कहने के लिए और उनसे प्रिय का समाचार पूछने के लिए घर से निकल पड़ी।

विशेष -
1. तीसरी पंक्ति में कवि ने श्लेष से एक और तथ्य को स्पष्ट किया है रूपी सोने में पति रूपा या चांदी के मिलने से सोने में ओप आती है जिससे शोधन के लिए सुहागा मिलाया जाता है। (स्त्री को सौभाग्य मिलता है।

अलंकार - पुनरुक्ति प्रकाश, श्लेष तथा अनुप्रास।

(8)

कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसु घुँघुची बन बोई॥
भइ करमुखी नैन तन राती को सेराव? बिरहा दुख ताती॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होइ बनबासी तहँ तहँ होइ घँघचि कै रासी।
बुँद बुँद महँ जानहुँ जीऊ। गुंजा गुँजि करे 'पिउ पीउ॥
तेहि दुख भए परास निपाते। लोह बुद्धि उठे होइ राते॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू। परवर पाक, फाट हिय गोहूँ॥
देखौं जहाँ होइ सोइ राता। जहाँ सो रतन कहै को बाता॥
नहिं पावस ओहि देसरा, नहिं हेवंत बसंत।
ना कोकिल न पपीहरा चेहि सुनि आवै कंत॥ 16॥

शब्दार्थ - राती = लाल। सिराव = ठंडा। कुंज = क्रोंच पक्षी। परवर = परवल।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियाँ मलिक मुहम्मद जायसीकृत 'पद्मावत' के 'नागमती वियोग खण्ड' से उद्धृत हैं। यहाँ जायसी विरह से अत्यधिक कारुणिक हुई नागमती की दशा का वर्णन कर रहे हैं -

व्याख्या नागमती अपनी व्यथा के कारण वन में कोयल की भाँति चीख-चीख कर रोने लगी। उसके नेत्रों से रक्त के आंसू बह रहे थे जोकि घुंघची के समान चारों ओर बिखर गये थे। उसका मुख अधिक रोने के कारण काला पड़ गया था और नेत्रों में लालिमा आ गई थी। भला इस विरह अग्नि में तप्त उस विरहिगी की विरह की व्यथा को कौन शान्त कर सकता था? नागमती वन में जहाँ भी खड़ी होती वहीं उसके रक्त के आँसुओं का चारों ओर ढेर लग जाता, उसके वे आँसू गुंजा के ढेर के समान मालूम होते थे। वे आँसू गिरे हुए ऐसे लगते थे मानो वे जीवित हैं और पिउ पिउ की ध्वनि का उच्चारण कर रहे हैं। लगता है उन्हीं आँसुओं की मूक व्यथा के कारण फ्लाश भी उनके रिक्त में डूबकर लाल बन गया है। उसी के दुःख से बिम्ब फल लाल हो गया है तथा परवर अधिक पक गया है और गेहूँ का हृदय विदीर्ण हो गया है। नागमती जिधर भी अपनी दृष्टि फेरती है उधर ही सारी प्रकृति उसे अपने दुःख में दुःखी दिखाई पड़ती है, उसे कहीं भी ऐसा कोई दिखाई नहीं देता जो कि प्रिय तक उसका सन्देश पहुंचा सकता। नामगती को अपने मन में यह आभास होता है कि स्वामी जिस देश में निवास करते हैं, लगता है वहाँ न तो वर्षा हेमन्त और बसन्त ऋतु ही होती है और न कोकिल और पपीहा ही वहां पिउ-पिउ पुकारते हैं। यदि यह सब वहाँ होता तो अवश्य ही मेरे स्वामी मेरा स्मरण करके यहाँ आ जाते।

विशेष -

1. इसमें विप्रलम्भ श्रृंगार है।
2. इन पंक्तियों में उन्माद की अवस्था का वर्णन करता है।
3. इसमें अनुप्रास तथा उत्प्रेक्षा अलंकार है।
4. रक्त के आँसू गिरने में फारसी का वीभत्स प्रभाव है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book